Thursday, August 7, 2014

डोरी होती थी कच्चे धागे की



डोरी होती थी कच्चे धागे की
राखी हम उसे कहते थे
बहुत सारे भाई बहन जब
छोटे से घरो में रहते थे||

घरो में जगह कम ही होती थी
दिलो में रहना पड़ता था
कितना प्यार करते है हम
ये कभी ना कहना पडता था ||

नदिया सी निश्छल भावनाएं
स्वार्थ के सागर में मिल गयी
अपनेपन की सारी मिठास
खारे पानी में घुल गयी||

राखी की तो क्या कहें ?
वेरायटी की भरमार है
बरसो गुजर जाते है यूँ ही
कलाई का इन्तजार है||

बड़े हम जबसे हो गये है
बड़ा ना हमको होना था
क्या था पता बड़ा होना
बस अपनेपन को खोना था||

जब भी आती है ये राखी
दिलो का दर्द बढ़ा जाती
हर साल आती है राखी
आकर फिर है चली जाती||










2 comments:

मुकेश कुमार सिन्हा said...

सुन्दर रचना
राखी की बधाई !!

ह्रदय क्रंदन said...

बहुत बहुत शुक्रिया