कहाँ चले जाते है बेटियों के हुनर||
कोख तो एक ही थी
समय भी बराबर था
क्यों हो गयी बदरंग दुनिया
मेरे बाहर आते ही||
मौका जो मुझे भी दिया होता
कदमो को सबल जो किया होता
खुशियाँ होती मुठ्ठी में मेरी
जीवन मैंने भी जिया होता||
बोलो ना कहाँ है मेरे हुनर
क्या मुझमे कोई बात ना थी
यु ही गये क्यों दिन ये गुजर
जीने की मेरी औकात ना थी ?||
पिस गये थे सिल पर सारे
या पोंछा फिर गया सपनो पर
बह गये कपड़ो के मैल साथ
या बर्तन के साथ गये वो घिस||
लग गये कोई छोंके में तो
कोई खुश्बू बन बस गये मनमें
तन के घाव तो दिख जाते
ये घाव लगे अंतर्मन में||
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